Me, mai, inme, uname, Bindu ya chandrabindu kyon nahin lagta hai | मे उनमे इनमे मै मे बिन्दु (अनुस्वार)) या चन्द्रबिन्दु (अनुनासिक) क्यों नहीं लगता है। मे, मै मे चन्द्रबिंदु या बिंदु लगेगा? Hindi mein chandrabindu kab lagana chahie kab nahin? Hindi spelling mistake किसी भी शब्द के पंचमाक्षर पर कोई भी बिन्दी अथवा चन्द्रबिन्दी (Hindi Chandra bindi kya hai) नहीं लगती है। इसका कारण क्या है आइए विस्तार से हम आपको बताएं। क्योंकि ये दोनो अनुनासिक और अनुस्वार उनमे निहित हैं। हिंदी भाषा वैज्ञानिक भाषा है। इसके विज्ञान शास्त्र को देखा जाए तो जो पंचमाक्षर होता है उसमें किसी भी तरह का चंद्रबिंदु और बिंदु नहीं लगता है क्योंकि उसमें पहले से ही उसकी ध्वनि होती है। पांचवा अक्षर वाले शब्द पर चंद्रबिंदु और बिंदु नहीं लगाया जाता है। जैसे उनमे, इनमे, मै, मे कुछ शब्द है जिनमें चंद्र बिंदु बिंदु के रूप में लगाया जाता है लेकिन म पंचमाक्षर है। Hindi main panchma Akshar kise kahate Hain? प फ ब भ म 'म' पंचमाक्षर pancman Akshar है यानी पांचवा अक्षर है। यहां अनुनासिक और अनुस्वार नहीं लगेगा। क्यो...
सफलता माने नरेंद्र मोदी
अभिषेक कांत पाण्डेय
चुनाव के आखिरी चरण में सभी की निगाहें वाराणसी पर लगी थी। जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने अमेठी में अपनी रैली के दौरान राहुल गांधी पर हमले किये उससे साफ जाहिर था कि नरेंद्र मोदी अब कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। अमेठी के मौजूदा सांसद राहुल से जब वहीं के लोग यह सवाल पूछा कि आखिर इतने साल के बाद ही क्यों उनकी याद आई। सड़क की खराब हालत पर ग्रमीणों ने राहुल से प्रश्न ऐन चुनाव के वक्त किया तो यह समझना बिल्कुल आसान है कि लोकतंत्र में जनता जब सवाल पूछती है तो नेता भी सोच में पड़ सकते हैं। इस तरह से देखा जाए तो
राहुल गांधी के लिए अमेठी में चुनौती बढ़ चुकी है। इस लोकसभा चुनाव में बड़े-बड़े दिग्गजों के माथे पर सिकन ला दिया है। चाहे वह अमेठी में आम आदमी पार्टी के उम्मीद्वार डा0 कुमार विश्वास और भजापा के उम्मीद्वार टीवी एक्टर से बनी नेता स्मृति ईरानी की चुनौती राहुल गांधी को मिली, वहीं आजमगढ़ में भाजपा के उम्मीदवार रामकांत यादव से मिली। किसी पार्टी के गढ़ विशेष मानी जाने वाली इन जगहों पर खास चुनौती नही होने से जिस तरह से आसानी से चुनाव जीत जाने की परंपरा कही नई बहस को जन्म नहीं देती थी लेकिन आज इन स्थानों पर स्थानीय विकास और यहां के उद्योग धंधों की बात होती नजर आ रही है।जिस तरह से चुनाव के अंतिम चरण में नरेंद्र मोदी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी और जनता को अपनी ओर खींचने के लिए उन्होंने कांग्रेस को घेरे में लिया है, ऐसे में खासतौर पर उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी बसपा का सूपड़ा साफ हो गया वहीं सपा कुनबे तक ही सीमट गई। वाराणसी में नरेंद्र मोदी के नामंकन के वक्त उमीड़ी भीड़ की परिभाषा सपा, बसपा और कांग्रेस इसे मोदी लहर नही मानने से इंकार कर रहे है, वहीं नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमले कांग्रेस, सपा और बसपा की तरफ से हो रहे है जिससे नरेंद्र मोदी की हवा को जनता ने लहर में तब्दील कर दिया। इस चुनाव में नरेंद्र मोदी बनाम सभी दल बन गया, क्रिकेट टेस्ट मैच में नरेंद्र मोदी एक तरफ और दूसरी तरफ कांग्रेस को समर्थन देने वाले सारे दल लग गए थे।
लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का हक है लेकिन जब अमर्यादित और व्यक्तिगत टिप्पणी की जाती है तब विकास के मुद्दे कहीं छोड़ने की बात कर जाति और धर्म के नाम पर बरगलाना शुरू हो जाता है। उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीति में जिस तरह से जातिवाद और धर्म की राजनीति हावी है और उसके सहारे चुनाव के अंतिम चरण में अधिक से अधिक सीटों से जीतने की मंशा लिए बसपा, कांग्रेस और सपा मैदान में थी लेकिन ऐन वक्त में नरेंद्र मोदी ने अपने को पिछड़ा बताया और विकास के नाम पर वोटरों के हर तबके को खींचने में सफल रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने सपा, बसपा और कांग्रेस को दयनीय स्थिति पर लाकर खड़ा कर दिया। वहीं बसपा सुप्रीमों मायावती को मैदान में उतरकर यह जवाब देना पड़ता है कि दलितों को भाजपा बरगला रही है, जाहिर है यहां मायावती को अपने वोटर फिसलते हुए नजर आया था, मायावती यह बात इस तरह समझाती नजर आती है कि भाजपा सत्ता पाने के बाद आरक्षण व्यवस्था समाप्त कर देगी, नरेंद्र मोदी ने आरक्षण और हिंदुत्व के विषय में अपनी रैलियों में नहीं बोला, जबकि गरीब तबके के साथ सबके विकास की बात कही, यहीं से नरेंद्र मोदी के प्रति झुकाव बढ़ना शुरू हुआ। केंद्र की राजनीति में नरेंद्र मोदी को एक मौका सभी ने देने के लिए अपने जाति बंधन से मुक्त होकर वोट किया। वहीं कांग्रेस संाप्रदायिकता का सवाल उठाकर अल्पसंख्यकों के वोट बटोरने की कवायद करती नजर आई। देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरण और जाति के आधार पर बंटते वोटों की बात से इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन यह भी समझना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश राज्य में पिछले दो दशक से कांग्रेस ओर भाजपा सत्ता से दूुर रहने का कारण भाजपा और कांग्रेस की कमजोर नीति पर ही सवाल उठाया। देखा जाए तो 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समजावादी पार्टी ने जिस तरह से पूर्णबहुमत प्राप्त किया, उससे साफ जाहिर है कि सपा और बसपा के पारंपरिक वोटर के स्थान पर नये युवा वोटरों ने बसपा को नकारा और कमजोर कांग्रेस और भाजपा की जगह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को थोक के भाव में वोट किया था लेकिन इस लोकसभा चुनाव में खासतौर पर उत्तर प्रदेश में युवावर्ग सपा, कांग्रेस और बसपा से मोहभंग होता दिखा। युवा वोटर सपा के अब तक के कार्यकाल में बेरोजगारी और शासन व्यवस्था के साथ तुष्टिकरण की राजनीति से उब चुका थां, ऐसे में युवा मतदाता केंद्र की सरकार चुनने में भाजपा को विकल्प के तौर पर चुना और उसे चुनने के लिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहती है ताकि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान बने, ऐसे में युवा वर्ग भजापा को स्वीकार करती नजर आ रही है। यह बात भी गौर करने वाली है कि 18 से 28 साल का युवा वह अपनी जाति और धर्म से उपर उठकर वोटिंग बूथ तक गया। आखिर इसके पीछे नरेंद्र मोदी का विकास का एजेंडा कारगर साबित हुआ है। जाहिर है कि युवा मतदाताओं का यह झुकाव उत्तर प्रदेश में नये परिवर्तन की ओर इशारा करती है। चुनावी विश्लेषण में जातिगत बंधन को तोड़कर देखना उत्तर प्रदेश में जरूरी है। राजनीति का सुखद पहलू यह है कि जाति और धर्म से परे युवाओं की सोच विकास के तराजू पर सभी दलों को तौलकर देखा है और उससे इस बार भाजपा को मौका दिया। जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने युवाओं को आकर्षित करने के लिए अपनी रैली में विकास और रोजगार की बात की है उससे युवा वर्ग खासा उत्साहित है।
इस बार के चुनाव में इंटरनेट का प्रयोग कम दिलचस्प नहीं रहा है। फेसबुक और ट्वीटर जैसी सोशल मीडिया साइटों पर युवाओं ने जमकर अपनी सोच शेयर की है। भाजापा ने भी युवाओं के इस मूड को पहचाना है। यह भी कहा जा सकता है कि जिस तरह से भाजापा की रणनीति सोशल मीडिया पर कामयाब होती नजर आ रही है, ऐसे में अन्य दल यह भाप ही नहीं पाए, इस रणनीति का सबसे बड़ा फायदा नरेंद्र मोदी जमीनी स्तर पर को मिलता दिख रहा है। देखा जाए तो चुनाव आयोग ने जिस तरह से नये मतदाताओं को आकर्षित किया और लोकतंत्र को में अपने मताधिकार का प्रयोग करने की जन जागरूकता का कार्यक्रम बढ़ाया उनमें मध्यमवर्गीय पोलिंग बूथ पर जाने लगे हैं। इसे साकरात्क देखे तो ऐसे वोटर जो राजनीति में कोई इंटेªस्ट नहीं लेता था वह भी अपने पोलिंग बूथ पर जाकर वोटिंग कर रहा है। ऐसे में इस बार वोट प्रतिशत बढ़ने का यह भी महत्वपूर्ण कारण रहा है। अगर इसे हम ऐसे समझे कि कांग्रेस के शासन के खिलाफ नरेंद्र मोदी के विकास का एजेण्डा ज्यादा कामयाब होता दिख रहा है और मतदाता घरों से निकल रहा है तब भी चाहे वह भाजपा के पक्ष में वोट पड़े या भजापा के लिए एंटी वोट पड़े, दोनों स्थिति में नरेंद्र मोदी की लहर को नकारा नहीं जा सकता है, इसमें सीधी बात है कि भाजापा के वोटर घरों से निकल रहे हैं। यह स्थिति उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में देखने को मिला।
जिस तरह से माना जाता है कि भाजपा हिंदूत्वादी ऐजेंडे पर चलती है इस अक्स को इस चुनाव में नरेंद्र मोदी तोड़ते नजर आएं हालांकि फैजाबाद के चुनावी रैली में मंच पर प्रस्तावित राम मंदिर पीछे बने चित्र पर नरेंद्र मोदी ने अपने एक इंटरव्यू में इससे अंजान बने रहे हैं, जाहिर है कि नरेंद्र मोदी की ऐसे मामलों में मौन रहते है ताकि वोट बैंक फिसले नहीं और दूसरी तरफ इसका फायदा भी वोट के रूप में मिले, यह राजनीतिक मजबूरी से ज्यादा सफल रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि अन्य दल इसे भुनाकर भाजपा को ही फायदा पहुचाने की रणनीति भाजपा की सफल होती नजर आती है।
खुद को बार-बार पिछड़ी जाति का बताने की रणनीति कारगर साबित होती नजर आती है। वहीं विकास के मुद्दे से शुरू राजनीति व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के साथ बदजूबानी की राजनीति में तब्दील भी हुई लेकिन अंत आते आते जिस तरह से भाजपा की तरफ से हिंदूत्ववादी और कांग्रेस की तरफ से तु्ष्टिकरण की राजनीति का स्वर भी प्रबल हुआ। जाहिर है कि ऐन वक्त में कोई भी पार्टी हारना नहीं चाहती वहीं जहा कांग्रेस कम से कम नुकसान पर लड़ रही है तो भाजपा 272 के मिशन से चूकना नहीं चाहती है, ऐसे में जति और धर्म के आधार पर वोट को पैमाना कसना नेताओं को आसान लगता। वहीं इस बार के चुनाव में जिस तरह से मोदी लहर ने क्षेत्रीय पार्टियों को धरातल पर ला दिया और नरेंद्र मोदी की शानदार सफलता के पीछे उनका गजब का आत्मविश्वास और सभी के विकास की बात कहने वाले को भारत की जनता प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। वहीं जाति और तुष्टिकरण की राजनीति ने सपा, कांग्रेस, बसपा को जनता ने साफ नकार दिया है। 1991 के राजनीति के बाद यह बदलाव देश के लिए शुभ संकेत है लेकिन जनता के उम्मीदों पर नरेंद्र मोदी को खरा उतराने का इम्तिहान उनका 26 मई से शुरू हो जाएगा। एक बात साफ है कि जातिगत और धर्म की राजनीति के साथ विकास का मुद्दा भी हावी रहा है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें