Me, mai, inme, uname, Bindu ya chandrabindu kyon nahin lagta hai | मे उनमे इनमे मै मे बिन्दु (अनुस्वार)) या चन्द्रबिन्दु (अनुनासिक) क्यों नहीं लगता है। मे, मै मे चन्द्रबिंदु या बिंदु लगेगा? Hindi mein chandrabindu kab lagana chahie kab nahin? Hindi spelling mistake किसी भी शब्द के पंचमाक्षर पर कोई भी बिन्दी अथवा चन्द्रबिन्दी (Hindi Chandra bindi kya hai) नहीं लगती है। इसका कारण क्या है आइए विस्तार से हम आपको बताएं। क्योंकि ये दोनो अनुनासिक और अनुस्वार उनमे निहित हैं। हिंदी भाषा वैज्ञानिक भाषा है। इसके विज्ञान शास्त्र को देखा जाए तो जो पंचमाक्षर होता है उसमें किसी भी तरह का चंद्रबिंदु और बिंदु नहीं लगता है क्योंकि उसमें पहले से ही उसकी ध्वनि होती है। पांचवा अक्षर वाले शब्द पर चंद्रबिंदु और बिंदु नहीं लगाया जाता है। जैसे उनमे, इनमे, मै, मे कुछ शब्द है जिनमें चंद्र बिंदु बिंदु के रूप में लगाया जाता है लेकिन म पंचमाक्षर है। Hindi main panchma Akshar kise kahate Hain? प फ ब भ म 'म' पंचमाक्षर pancman Akshar है यानी पांचवा अक्षर है। यहां अनुनासिक और अनुस्वार नहीं लगेगा। क्योंकि पं
नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाष सत्यार्थी और मलाला पर सवाल क्यों?
अभिषेक कांत पाण्डेय
नोबेल पुरस्कार और फिर इसमें राजनीति यह सब बातें इन दिनों चर्चा में है। देखा जाए तो विष्व के इतिहास में दूसरे विष्व युद्ध के बाद दुनिया का चेहरा बदला है। आज तकनीकी के इस युग में हम विकास के साथ अषांति की ओर भी बढ़ रहे हंै। विष्व के कई देष तरक्की कर रहे, तो वहीं अषांति चाहने वाले आज भी मध्ययुगीन समाज की बर्बबरता को आतंकवाद और नष्लवाद के रूप में इस धरती पर जहर का बीज बो रहे हैं। एषिया में बढ़ रहे आतंकवाद के कारण शांति भंग हो रही है। ऐसे में शंाति के लिए दिये जाने वाले नोबेल पुरस्कार को राजनीति के चष्में से देखना ठीक नहीं है। बहुत से लोग विष्व शांति के लिए आगे बढ़ रहे हैं। पाकिस्तान की मलाला यूसूफजई को उसके साहस और तालिबानी सोच के खिलाफ उसके आवाज को विष्व में सराहा गया है, ऐसे में मलाला यूसुफजई को दिया गया ष्शांति का नोबेल पुरस्कार की वह सही हकदार भी है। वहीं भारत के कैलाष सत्यार्थी को बेसहारा और गरीब बच्चों को षिक्षा और उनका हक दिलाने के लिए नोबेल का पुरस्कार दिया गया है। संयुक्त रूप से मिला यह नोबेल पुरस्कार में भारत और पाकिस्तानी नागरिक के विष्व में शांति अमन के उनके काम के लिए दिया गया है, जबकि पुरस्कारों की राजनीति में कई अलग निहितार्थ खोज जा रहे हैं। जाहिर है विष्व में आज दो समस्या विकाराल रूप ले रहा है- विष्व आतंकवाद और बच्चों पर हो रहे अमानवीय अत्याचार। ऐसे में हम विष्व की भावी पीढ़ी इन बच्चों को अगर उनका हक नहीं दिला पाएंगे तो निष्चित ही यह सभ्य समाज विष्व आषांति की ओर बढ़ता जाएगा। ग्यारह वर्षीय मलाला यूसुफजई विष्व के उन बच्चों के लिए आईकान है जो किन्हीं कारण से अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते हैं। आधुनिक युग में षिक्षा के माध्यम से हम आतंकवाद और नष्लवाद के खिलाफ जीत हासिल कर सकते हैं। इसके लिए हमें विष्व के सभी बच्चों को षिक्षा आधिकार दिलाना जरूरी है। भारत और पाकिस्तान जैसे देष में आज भी सरकारी स्कूल की स्थिति चिंताजनक है। षिक्षा देने के मामले में लड़का और लड़की में भेद किया जाता है। यह सोच खतरनाक है। मलाला एक लड़की है और उस जैसी सभी लड़कियों को तालिबान ने स्कूल न जाने की हिदायद दी लेकिन मालाला फिर भी डरने वाली नहीं थी, वह पढ़ना चाहती थी, उसे सिखाया गया कि तालीम से ही दुनिया में अमन आ सकता है। आखिरकार उसने तालिबानी सोच का षिकार होना पड़ा। इन सबके बावजूद मलाला ने हार नहीं मानी अपनी पढ़ाई जारी रखी। जाहिर है कि विष्व में इन दिनों बच्चों पर अत्याचार की घटना बढ़ी है, ऐसे में पाकिस्तान की मलाला युसूफजई और भारत के कैलाष सत्यार्थी को अगर नोबेल पुरस्कार दिया जाता है, तो इसे राजनीति के चष्में से देखना उचित नहीं है। यह भी सही है कि नोबेल का शांति पुरस्कार देने में कई हस्तियों को अनदेखा भी किया गया है लेकिन इसका कतई ये मतलब नहीं है कि कैलाष सत्यार्थी और यूसुफजई मलाला इस योग्य नहीं है। देखा जाए तो यह एक ऐसे सोच के खिलाफ लड़ाई है, कुछ असमाजिक संगठन पूरे विष्व में बच्चों के षिक्षा अधिकार से वंचित कर शांति अमन के खिलाफ काम कर रहे हंै।
भारत में षिक्षा आधिकार कानून लागू होने के बाद भी बाल मजदूरी और षिक्षा की दोहरी नीति जैसी समस्याओं पर सरकार केवल खानापूर्ति कर रही हैं। भारत विष्व के महाषक्ति केंद्र की तौर पर उभर रहा है तो वहीं पाकिस्तान तालिबानी सोच और आंतकवादी पनाह स्थल के तौर पर विष्व में अशांति फैलाने वाले देष के रूप में दुनिया के मानचित्र में सामने आ रहा है, ऐसे में तालिबानी सोच के खिलाफ वहा जन्मी एक बच्ची मलाला ने अपनी हक की लड़ाई रही है जो यह बताता है कि पाकिस्तान के नागरिक शांति व अमन चाहते हैं।
भारत की आधी से ज्यादा आबादी षिक्षा, स्वास्थ, भोजन और जल जैसे मूलभूत आवष्यकता से महरूम है। वहीं लड़कियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। महिलाओं के साथ बढ़़ते आपराध पर यहां पर बयानबाजी कर सरकारें अपने दायित्व से बचना चाहती हंै। भारत में भी खाप पंचायतों जैसे कुछ चेहरे हैं जो तालिबानी सोच को उजागर करते हंै। जातिवाद के तिकड़म जाल में आज भी दलितों के साथ दुव्र्यवहार की घटना आम है। ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले खुद सरकारी महकमों से जुड़े हैं, उत्तर प्रदेष में एक दलित षिक्षक को रात में उठाकर आइएस आधिकारी ने मुर्गा बनाया, हालांकि उस आफिसर को सरकार ने तुरंत निलंबित कर दिया। अभी हाल ही में बिहार में गरीब दलित महिलाओं को रस्सी से बांधकर बलात्कार की शर्मसार करने वाली यह घटना बताती हैं कि महिलाएं अभी भी शोषित हैं। वहीं भारत तरक्की की ओर बढ़ रहा है, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है, यहां के नागरिक शांति पसंद है। विष्व शांति के लिए आगे बढ़ रहे है।
कैलाष सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई ने समाज के भयाानक चेहरे को उजागिर किया है, इस हक की लड़ाई में अपने जीवन की परवाह नहीं किया। बाल मजदूरी जैसी बुराई के खिलाफ लड़ने के कारण कई बार अविचल सत्यार्थी पर जानलेवा हमले हुए, लेकिन फिर भी वह अपने मिषन को जारी रखा, बच्चों के षिक्षा और उनके अधिकार के लिए अपना जीवन लगा दिया। वहीं मलाला ने पाकिस्तान में उस तालिबानी सोच जहां महिलओं की आजादी को पिंजड़ों में कैद की जाती है। लड़कियों के तालीम के खिलाफ ऐलान और जानलेवा हमलों के बाद यह बच्ची आज लड़कियों के तालिम के हक में इस छोटे से लगने वाले लेकिन प्रभावी विचार के सामने विष्व में बच्चों, लड़कियों और महिलाओं के हक में हमारे समाने है। कैलाष सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई कोई फिल्म स्टार या नेता नहीं है, ना ही किसी चर्चित व्यक्ति की संतान, ये साधारण परिवार में जन्में उस आम आदमी के प्रतीक है, जो दुनिया में हो रहे अत्याचाार के खिलाफ बिना किसी धर्म, जाति और देष की सीमाओं से आगे की सोच रखने वाले हैं। ऐसे बहुत से लोग अपने जीवन में साहस दिखाते हैं और मानवीय अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। यह हमारी विडंबना है कि मीडिया की चकाचैंध और राजनीतिक समाचार के बीच हम ऐसे लोगों को तब जानते है, जब उन्हें कोई बड़ा पुरस्कार मिलता है। देखा जाए तो सूचना के इस युग में हम अनावष्यक सुचनाओं से घिरे हैं जबकि हकीकत यह है कि दुनिया का एक खास हिस्सा अंषाति की ओर बढ़ रहा है, एक तरह का असंतोष बढ़ रहा है, इन सबके बावजूद यह दुनिया तरक्की की ओर भी बढ़ रहा है। हमें अपने आसपास देखे तो कई ऐसे अविचल सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई मिल जाएंगे, लेकिन हम इनके साथ खड़े होने का साहस नहीं कर पाते हैं, साफ है कि समाज में आज भी लोग अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने का साहस नहीं कर पाते हंै और साहस दिखाने वाले लोगों के साथ देने के समय घर में किसी गुंडे या माफिया के हमले की आषंका से दुबक जाते हैं। इसी सोच को बदलना है, अपनी इसी सोच को बदलने वालों के लिए कैलाष सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई एक आइकान है।
अभिषेक कांत पाण्डेय
नोबेल पुरस्कार और फिर इसमें राजनीति यह सब बातें इन दिनों चर्चा में है। देखा जाए तो विष्व के इतिहास में दूसरे विष्व युद्ध के बाद दुनिया का चेहरा बदला है। आज तकनीकी के इस युग में हम विकास के साथ अषांति की ओर भी बढ़ रहे हंै। विष्व के कई देष तरक्की कर रहे, तो वहीं अषांति चाहने वाले आज भी मध्ययुगीन समाज की बर्बबरता को आतंकवाद और नष्लवाद के रूप में इस धरती पर जहर का बीज बो रहे हैं। एषिया में बढ़ रहे आतंकवाद के कारण शांति भंग हो रही है। ऐसे में शंाति के लिए दिये जाने वाले नोबेल पुरस्कार को राजनीति के चष्में से देखना ठीक नहीं है। बहुत से लोग विष्व शांति के लिए आगे बढ़ रहे हैं। पाकिस्तान की मलाला यूसूफजई को उसके साहस और तालिबानी सोच के खिलाफ उसके आवाज को विष्व में सराहा गया है, ऐसे में मलाला यूसुफजई को दिया गया ष्शांति का नोबेल पुरस्कार की वह सही हकदार भी है। वहीं भारत के कैलाष सत्यार्थी को बेसहारा और गरीब बच्चों को षिक्षा और उनका हक दिलाने के लिए नोबेल का पुरस्कार दिया गया है। संयुक्त रूप से मिला यह नोबेल पुरस्कार में भारत और पाकिस्तानी नागरिक के विष्व में शांति अमन के उनके काम के लिए दिया गया है, जबकि पुरस्कारों की राजनीति में कई अलग निहितार्थ खोज जा रहे हैं। जाहिर है विष्व में आज दो समस्या विकाराल रूप ले रहा है- विष्व आतंकवाद और बच्चों पर हो रहे अमानवीय अत्याचार। ऐसे में हम विष्व की भावी पीढ़ी इन बच्चों को अगर उनका हक नहीं दिला पाएंगे तो निष्चित ही यह सभ्य समाज विष्व आषांति की ओर बढ़ता जाएगा। ग्यारह वर्षीय मलाला यूसुफजई विष्व के उन बच्चों के लिए आईकान है जो किन्हीं कारण से अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज नहीं उठा पाते हैं। आधुनिक युग में षिक्षा के माध्यम से हम आतंकवाद और नष्लवाद के खिलाफ जीत हासिल कर सकते हैं। इसके लिए हमें विष्व के सभी बच्चों को षिक्षा आधिकार दिलाना जरूरी है। भारत और पाकिस्तान जैसे देष में आज भी सरकारी स्कूल की स्थिति चिंताजनक है। षिक्षा देने के मामले में लड़का और लड़की में भेद किया जाता है। यह सोच खतरनाक है। मलाला एक लड़की है और उस जैसी सभी लड़कियों को तालिबान ने स्कूल न जाने की हिदायद दी लेकिन मालाला फिर भी डरने वाली नहीं थी, वह पढ़ना चाहती थी, उसे सिखाया गया कि तालीम से ही दुनिया में अमन आ सकता है। आखिरकार उसने तालिबानी सोच का षिकार होना पड़ा। इन सबके बावजूद मलाला ने हार नहीं मानी अपनी पढ़ाई जारी रखी। जाहिर है कि विष्व में इन दिनों बच्चों पर अत्याचार की घटना बढ़ी है, ऐसे में पाकिस्तान की मलाला युसूफजई और भारत के कैलाष सत्यार्थी को अगर नोबेल पुरस्कार दिया जाता है, तो इसे राजनीति के चष्में से देखना उचित नहीं है। यह भी सही है कि नोबेल का शांति पुरस्कार देने में कई हस्तियों को अनदेखा भी किया गया है लेकिन इसका कतई ये मतलब नहीं है कि कैलाष सत्यार्थी और यूसुफजई मलाला इस योग्य नहीं है। देखा जाए तो यह एक ऐसे सोच के खिलाफ लड़ाई है, कुछ असमाजिक संगठन पूरे विष्व में बच्चों के षिक्षा अधिकार से वंचित कर शांति अमन के खिलाफ काम कर रहे हंै।
भारत में षिक्षा आधिकार कानून लागू होने के बाद भी बाल मजदूरी और षिक्षा की दोहरी नीति जैसी समस्याओं पर सरकार केवल खानापूर्ति कर रही हैं। भारत विष्व के महाषक्ति केंद्र की तौर पर उभर रहा है तो वहीं पाकिस्तान तालिबानी सोच और आंतकवादी पनाह स्थल के तौर पर विष्व में अशांति फैलाने वाले देष के रूप में दुनिया के मानचित्र में सामने आ रहा है, ऐसे में तालिबानी सोच के खिलाफ वहा जन्मी एक बच्ची मलाला ने अपनी हक की लड़ाई रही है जो यह बताता है कि पाकिस्तान के नागरिक शांति व अमन चाहते हैं।
भारत की आधी से ज्यादा आबादी षिक्षा, स्वास्थ, भोजन और जल जैसे मूलभूत आवष्यकता से महरूम है। वहीं लड़कियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। महिलाओं के साथ बढ़़ते आपराध पर यहां पर बयानबाजी कर सरकारें अपने दायित्व से बचना चाहती हंै। भारत में भी खाप पंचायतों जैसे कुछ चेहरे हैं जो तालिबानी सोच को उजागर करते हंै। जातिवाद के तिकड़म जाल में आज भी दलितों के साथ दुव्र्यवहार की घटना आम है। ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले खुद सरकारी महकमों से जुड़े हैं, उत्तर प्रदेष में एक दलित षिक्षक को रात में उठाकर आइएस आधिकारी ने मुर्गा बनाया, हालांकि उस आफिसर को सरकार ने तुरंत निलंबित कर दिया। अभी हाल ही में बिहार में गरीब दलित महिलाओं को रस्सी से बांधकर बलात्कार की शर्मसार करने वाली यह घटना बताती हैं कि महिलाएं अभी भी शोषित हैं। वहीं भारत तरक्की की ओर बढ़ रहा है, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देष है, यहां के नागरिक शांति पसंद है। विष्व शांति के लिए आगे बढ़ रहे है।
कैलाष सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई ने समाज के भयाानक चेहरे को उजागिर किया है, इस हक की लड़ाई में अपने जीवन की परवाह नहीं किया। बाल मजदूरी जैसी बुराई के खिलाफ लड़ने के कारण कई बार अविचल सत्यार्थी पर जानलेवा हमले हुए, लेकिन फिर भी वह अपने मिषन को जारी रखा, बच्चों के षिक्षा और उनके अधिकार के लिए अपना जीवन लगा दिया। वहीं मलाला ने पाकिस्तान में उस तालिबानी सोच जहां महिलओं की आजादी को पिंजड़ों में कैद की जाती है। लड़कियों के तालीम के खिलाफ ऐलान और जानलेवा हमलों के बाद यह बच्ची आज लड़कियों के तालिम के हक में इस छोटे से लगने वाले लेकिन प्रभावी विचार के सामने विष्व में बच्चों, लड़कियों और महिलाओं के हक में हमारे समाने है। कैलाष सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई कोई फिल्म स्टार या नेता नहीं है, ना ही किसी चर्चित व्यक्ति की संतान, ये साधारण परिवार में जन्में उस आम आदमी के प्रतीक है, जो दुनिया में हो रहे अत्याचाार के खिलाफ बिना किसी धर्म, जाति और देष की सीमाओं से आगे की सोच रखने वाले हैं। ऐसे बहुत से लोग अपने जीवन में साहस दिखाते हैं और मानवीय अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। यह हमारी विडंबना है कि मीडिया की चकाचैंध और राजनीतिक समाचार के बीच हम ऐसे लोगों को तब जानते है, जब उन्हें कोई बड़ा पुरस्कार मिलता है। देखा जाए तो सूचना के इस युग में हम अनावष्यक सुचनाओं से घिरे हैं जबकि हकीकत यह है कि दुनिया का एक खास हिस्सा अंषाति की ओर बढ़ रहा है, एक तरह का असंतोष बढ़ रहा है, इन सबके बावजूद यह दुनिया तरक्की की ओर भी बढ़ रहा है। हमें अपने आसपास देखे तो कई ऐसे अविचल सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई मिल जाएंगे, लेकिन हम इनके साथ खड़े होने का साहस नहीं कर पाते हैं, साफ है कि समाज में आज भी लोग अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने का साहस नहीं कर पाते हंै और साहस दिखाने वाले लोगों के साथ देने के समय घर में किसी गुंडे या माफिया के हमले की आषंका से दुबक जाते हैं। इसी सोच को बदलना है, अपनी इसी सोच को बदलने वालों के लिए कैलाष सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई एक आइकान है।
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